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आठ / प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'
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दुनिया की गंदी बस्ती में, मेरा सीधा मन छला गया
जो मुझसे सीधे होते हैं,
वे जीवन भर बस रोते हैं
फूलों का हार चले लेने,
काँटों का हार पहनते हैं
सीधापैन संताप जगत का
सीधापन अभिशाप जगत का
तुम भी युग के अनुरूप चलो
तुम भी युग के अनुरूप ढलो
ऊपर से चाम हिरण का लो
भीतर से विषधर नाग बनो
मैं भीतर-बाहर सीधा था, इसलिए जहाँ में छला गया
देखो तो सीधी होती है बकरी,
तो कितना रोटी हैं
बलि में प्यारे बच्चे को दे,
मिमियाती रात न सोती हैं
उसके दुख को जाना कोई
अपना दुख-सा माना कोई
बक्र चन्द्र्मा में तुमने क्या
ग्रहण कभी लगते देखा
वीरों की तलवार में तुमने
जंग कभी लगते देखा
बाघों की बलि होती न कभी, बलि का बकरा मैं छला गया।