भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक / आह्वान / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:02, 3 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़' |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भारत जय! जय! भारत अक्षय!
जयति-ज्ञान-विज्ञान!
खोलो पंख लस मदमाँते, पंछी परिमल लूटे
जाग! विश्व-बंधुत्व के स्वर अब पूरब क्षिति से फूटे
भारत मानव महा सिंधु तट, भाँति-भाँति के लोग
सब धर्मों क यहाँ मिला है अपना सम्यक योग

सबसे प्यारा, जग से न्यारा
भारत! प्राण समान!

एक अगिन की ज्योति जलाई मिलकर कितनी जाती
आर्य-अनार्य सजाए हिल-मिल, दिवाली की बाती
तुरुक-मुगल-मंगोल-चीन मिल, धरे विष्णू पदशीश
असुर देव शिव मैगर मांटे, आर्य कहे जगदीश

तन-मन पुलक भरे जाता था,
गन्धर्बो का गान

यूची-यक्ष-कुशान-हूण-शक-द्रविड़-नीग्रो नाम
कितनी जाति मिली क्या जानूँ सबका हिन्दू नाम
सबका अपना देव-पुजारी, सबका अपना ढंग
मगर रंगे तन-मन सबके बस भारतीय एक रंग

आओ हिल-मिल गालें।
हम सब हिन्दुस्तानी गान!

हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई-पारसी-जैन-बौद्ध-कृस्तानी
मझहब प्यारे सबके अपने, पर हम हिन्दुस्तानी
आजादी के दीप! प्राण के दीप बुझा कर बारे
हम सब हिल-मिल वतन के खातिर मरे और को मारे

सबकुछ लूट जाये लूटने दो
पर न लूटे यह शान!