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तीन / आह्वान / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

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एक अणु की शक्ति को तुम जानते हो
चूर कर सकता हिमालय को
और पूरे को नहीं तो विश्व आधे को
ओर कुछ मानो न मानो पर इसे तो मानते हो
आदमी हो तू कि अणु-अणु से
तुम्हारी देह मिट्टी की नहीं फौलाद साँसों की
अय! आदमी रे! बोल! अपने आप को पहचानते हो
कार्बन की गहनता हीरा बनाती है
सूर्य की किरने कुसुम में रंग लाती हैं
बोल! उसके मोल! लाखों-लाख कैसे मानते हो
मैं जहाँ में ढूँढता ही रह गया बस आदमी
पर आदमी मेरी नज़र आया नहीं
क्या साँस अगली निकल पायेगी पता हे जागते हो?