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पाँच / आह्वान / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

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मेरे स्वर फूटे अनजाने
मन के धनुष बाण कर ताने
मेघ उमड़ नाचो मेरे घर जब माँगे तब बरसाओ
जीतने माँगें लोग ताप रवि उतने ताप तपाओ
सहनशील श्री राम खड़े हैं
देखो शर-सन्धाने

सागर अमृत उगल तीर पर विनती के दिन बीते
‘लछमन वाण शराशन आनूँ’ छन में कर दूँ रीते

त्रेता के श्रीराम आज जन-जन
को चले बनाने

नन्दन बन की मधुर बाँसुरी सुन न पड़ी कानों में
चक्र सुदर्शन का घर्र-घर्र स्वर बजता अब प्राणों में
आज बिवस हो फिर से हरि को
पाञ्चजन्य है पड़े उठाने

कुंती सूत बृहनला ने किया है, फिर से हुंकार
रे रूठा गाण्डीव आ गया कर में फिर पहली टंकार
झुको-झुको अय! विश्वनाश
है गान्डीव के ताने