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छ: / आह्वान / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

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जहाँ शीश देने का मेला, वहाँ क्षमा क्या माँगे
अन्त-अन्त तक विजय उसी की शीश दिया जो आगे
शिर के मोल जहाँ तुलते हैं, लाख-लाख लालों से
एक शीश का दे न सकेगा, माँगो धन वालों से

जग में जीना बड़ा कठिन है और तब तलक जीना
जब तक गंगा में लहरें हैं, धरती में रस भीना
यहाँ मृत्यु भय से थरथर पग मानव के थर्राते
किन्तु मरण के गीत वहाँ सीमा को वीर सुनाते

स्वप्न जहाँ साकार बन खड़ा, मूर्ति जहाँ ममता की
गर्म साँस से जल जाती है विजय कार्य क्षमता की
उसकी ध्वजा गगन में लहरें, वीर उठो तुम जाओ
जीत हार की बात नहीं कुछ हँस-हँस प्राण गँवाओ

यहाँ अश्रु दे मोल चुकाओ, वहाँ अमर पद पाओ
घुट-घुट कर मरने से अच्छा हँस-हँस प्राण गवाओ