भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दस / आह्वान / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:37, 3 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़' |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्रेम के मंदिर! लहू के तेल जलते हैं
धमनियों की जहाँ बाती प्राणों के दीप सजते है
मेद का चन्दन जहाँ नित चढ़ते है
विहँसते है जहाँ रणधीर कायर शीश धुनते हैं

प्राण वायु की जहाँ घड़ियाल-घंटा-ध्वनि
संकल्प में तन-मन-निधन यह स्वस्ति पढ़ने मुनि
और हैं जलती चिता के धूम जिनके अगरू सुंदर
प्रेम की देवी मनाता हर कोई फूल से वह रीझती गर

प्रेम की देवी खड़ग की धार पर है
बोल दो बढ़कर कि लेलों प्रापा मेरा
इस धरा पर उस खड़ग की धार से ही
वाक्य लिख देगी। अमर बलिदान तेरा