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उनतीस / आह्वान / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

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नील गगन के राही पंछी बोल
बाली जाने वाले वीरों को क्या दोगे मुँह खोल
मुक्त व्योम में पाँव-पंख फैला कर
मलयज साँसों में भर जिये जीवन भर
पिये सुधा सम नीर, बैठ पनघट पर
फल द्रुमो पर खाये-खेले उड़कर

आज उसी भारा पर संकट
क्या दोगे मुँह खोल

मनुज अगर होता तो मैं बतलाता
अरि को रन के खेत सुला सो जाता
हाय! मुझे पंछी ही रचा विधाता
माँ का अंग कटे मैं देखूँ

हँस-हंस प्रिय संग डॉल
जहां रात दिन जागा करते भारत माँ के वीर

पाला बरसे, कुहरा बरसे, गोला-गोली तीर
कायर की छती फंटती है मस्त जहां रणधीर
जहाँ अंगीठी ताप रहे है
ताक रहे अरि गोल

प्राण प्रिया को साथ लिये उस ज्वाला में जल जाऊँ
मातृ भूमि पर मरने वालों का भोजन बन पाऊँ

तभी सराहूँ भाग्य, भाग्य पर रह-रह मैं इठलाऊँ
शीश चढ़ाने वालों पर मैं बार बार बाली जाऊँ
प्राण लूटा सकता हूँ
माँ के लिये मीत अनमोल