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रौदता है क्यों उसे / नंदेश निर्मल

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देख बचपन रो रहा है
रौंदता है क्यों उसे
गुलसिताँ के फूल हैं ये
क्यों मसलता है उसे।

देख बचपन रो रहा है
रौंदता है क्यों उसे।

यह उमर पढ़ने के थे
फूट कर खिलने के थे
बस वही रोटी सबब है
क्यों मिटाता है उसे।

देख बचपन रो रहा है,
रौंदता है क्यों उसे।

जो फसल तूने लगाये
बिन पके ही काटते
जो मजदूरी है कराता
क्यों न खुद करता उसे।

देख बचपन रो रहा है
रौंदता है क्यों उसे।

होटलों में हाथ घिसते,
सी रहे जूते कहीं पर
दस्तकारी में लगाकर
क्यों कुचलता है उसे

देख बचपन रो रहा है
रौंदता है क्यों उसे।
 
दे जला अब यह दिया तू
रौशनी में आप भर ले
इस ठिकाने पर ठहर जा
क्यों सताता है उसे।

देख बचपन रो रहा है
रौंदता है क्यों उसे।