मिट्टी दीन कितनी, हाय!
हृदय की ज्वाला जलाती,
अश्रु की धारा बहाती,
और उर-उच्छ्वास में यह काँपती निरुपाय!
मिट्टी दीन कितनी, हाय!
शून्यता एकांत मन की,
शून्यता जैसे गगन की,थाह पाती है न इसका मृत्तिका असहाय!
मिट्टी दीन कितनी, हाय!
वह किसे दोषी बताए,
और किसको दुख सुनाए,
जब कि मिट्टी के करे अन्याय!
मिट्टी दीन कितनी, हाय!