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मृत्यु गीत / 8 / भील

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भील लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात

टेक- क्यों झुरवो न मेरी माई ममता क्यों झुरवो मेरी माई।

चौक-1 जंगल-जंगल की जड़ी बुलाई,
    वेद्य करो मेरा भाई, अरे हंसा वैद्य करो मेरा भाई
    अरे ये जड़ियां कछु काम नी आई।
    ऐसी आदल राम घर आई,
    ममता क्यों झुरवो मेरी माई।

चौक-2 पाँच हाथ को रेजो बुलायो, सुन्दर काया ढकाई,
    अरे हंसा सुन्दर काया ढकाई,
    अरे चार मिली चवरग्या उबीया,
    ऐसो छछ म लियो उटाई, ममता क्यों झुरवो मेरी माई

चौक-3 डेल लगुण थारी त्रिया संगाती,
    झोपड़ा लगुण तेरि माता, अरे हंसा झोपड़ा लगुण तेरि माता
    नंदी लगुण तेरा कुटुम कबीला, ऐसो वहां छोड़िया रे अकेला
    ममता क्यों न झुरवो मेरी माई

चौक-4 माता रोवे थारी जलम जोगणी,
    बइण वार तिवार, त्रिया रोव तीन घड़ी रे।
    ऐसो दूसरो करग घर वास, ममता क्यों न झुरवो।

चौक-5 जंगल-जंगल की लकड़ी बुलाई, त्योको सल रचाई,
    अरे हंसा त्योको सल रचाई।
    चार मिलि न चवंरग्या ऊब्या
    ऐसी उल्टी आग लगाई, ममता क्यों झुरवो मेरी माई।

चौक-6 हाड़ जले जो बन्द की लकड़िया
    बाल जले रे हरिया घास, अरे हंसा हरिया घास।
    अरे हीरा सरीकी काया जलत है,
    ऐसा कोई नी आवेगा पास, ममता क्यों न झुरवो।

छाप- कये कबीरा सुणो भाई साधो यो पंथ है निरवाणी।

- माता की ममता क्यों दुःखी हो रही है। कई जंगलों से जड़ी-बूटियाँ बुलाकर
वैद्यों ने उपचार किया, किन्तु कोई काम नहीं आया। ऐसा राम के पार का बुलावा
आया और हंसा (जीव) चला गया।

पाँच हाथ का कफन बुलाया और सुन्दर शरीर को ढांका। अर्थी के चारों खूँट पर
चार लोग खड़े हुए और शीघ्र उठा लिया। ममता क्यों दुःखी हो।

दरवाजे तक पत्नी साथ गई, झोपड़ों तक माता गई, नदी तक कुटुम्ब गया और वहाँ
क्रियाकर्म कर अकेला छोड़ आये।

तेरी माता पूरे जीवन रोती है और बहन त्यौहार पर रोती है। पत्नी तीन घड़ी रोती है
और दूसरा घर कर लेती है।

जंगल की लकड़ी बुलाई और आग लगा दी।

टेक- क्यों झुरवो न मेरी माई ममता क्यों झुरवो मेरी माई।

चौक-1 जंगल-जंगल की जड़ी बुलाई,
    वेद्य करो मेरा भाई, अरे हंसा वैद्य करो मेरा भाई
    अरे ये जड़ियां कछु काम नी आई।
    ऐसी आदल राम घर आई,
    ममता क्यों झुरवो मेरी माई।

चौक-2 पाँच हाथ को रेजो बुलायो, सुन्दर काया ढकाई,
    अरे हंसा सुन्दर काया ढकाई,
    अरे चार मिली चवरग्या उबीया,
    ऐसो छछ म लियो उटाई, ममता क्यों झुरवो मेरी माई

चौक-3 डेल लगुण थारी त्रिया संगाती,
    झोपड़ा लगुण तेरि माता, अरे हंसा झोपड़ा लगुण तेरि माता
    नंदी लगुण तेरा कुटुम कबीला, ऐसो वहां छोड़िया रे अकेला
    ममता क्यों न झुरवो मेरी माई

चौक-4 माता रोवे थारी जलम जोगणी,
    बइण वार तिवार, त्रिया रोव तीन घड़ी रे।
    ऐसो दूसरो करग घर वास, ममता क्यों न झुरवो।

चौक-5 जंगल-जंगल की लकड़ी बुलाई, त्योको सल रचाई,
    अरे हंसा त्योको सल रचाई।
    चार मिलि न चवंरग्या ऊब्या
    ऐसी उल्टी आग लगाई, ममता क्यों झुरवो मेरी माई।

चौक-6 हाड़ जले जो बन्द की लकड़िया
    बाल जले रे हरिया घास, अरे हंसा हरिया घास।
    अरे हीरा सरीकी काया जलत है,
    ऐसा कोई नी आवेगा पास, ममता क्यों न झुरवो।

छाप- कये कबीरा सुणो भाई साधो यो पंथ है निरवाणी।

- माता की ममता क्यों दुःखी हो रही है। कई जंगलों से जड़ी-बूटियाँ बुलाकर
वैद्यों ने उपचार किया, किन्तु कोई काम नहीं आया। ऐसा राम के पार का बुलावा
आया और हंसा (जीव) चला गया।

पाँच हाथ का कफन बुलाया और सुन्दर शरीर को ढांका। अर्थी के चारों खूँट पर
चार लोग खड़े हुए और शीघ्र उठा लिया। ममता क्यों दुःखी हो।

दरवाजे तक पत्नी साथ गई, झोपड़ों तक माता गई, नदी तक कुटुम्ब गया और वहाँ
क्रियाकर्म कर अकेला छोड़ आये।

तेरी माता पूरे जीवन रोती है और बहन त्यौहार पर रोती है। पत्नी तीन घड़ी रोती है
और दूसरा घर कर लेती है।

जंगल की लकड़ी बुलाई और आग लगा दी।

शरीर लकड़ी के समान और बाल घास के समान, हीरे के समान काया जल रही है, कोई
पास नहीं आता है।
शरीर लकड़ी के समान और बाल घास के समान, हीरे के समान काया जल रही है, कोई
पास नहीं आता है।