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मृत्यु गीत / 10 / भील

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भील लोकगीत   ♦   रचनाकार: अज्ञात

टेक- दल खोलो कमल का फूल हंसा, सायब रे न मिलावण ना होय रे।

चौक-1 गऊ न का दूध नीबजे रे हंसा, दूध का दही होय रे।
    आरे हंसा दूध न का दही होय रे।
    मयड़ो रोळो माखण नीबजे रे, ऐसो फिर नहिं दहिड़ो होय
    सायब रेन मिलावण होय।

चौक-2 फूल फूलियो गुलाब को हंसा, भँवरो गयो लोभाय रे,
    आरे हंसा भँवरो गयो लोभाय रे।
    कली-कली भँवरो गुँजी रह्यो हंसा,
    एसो फूल गयो कुम्हलाय।
    सायब रे न मिलावण ना होय रे।

चौक-3 पाटियां पाड़ी रूड़ा प्रेम की रे हंसा, सोभती बिंदिया सजाई रे।
    आरे हंसा रे न मिलावण ना होय रे।
    चूंदड़ ओढ़ कोई प्रेम की रे, वकि मुक्ति का होय कल्याण,
    सायब रेन मिलावण ना होय रे।

चौक-4 नंदी किनारे घर कर्यो हंसा, नहावत निरमल नीर रे।
    आरे हंसा नहावत निरमल नीर रे।
    धरमी राजा पार उतरिया, ऐसो पापी गोता खाय
    सायब से मिलावण ना होय रे।

छाप- कइये कमाली कबिर सा की लड़की, ऐसा खत अमरापुर पाया।

- हंस कमल दल का फूल खोलो, भगवान से मिलना न हो। गौ से दूध उत्पन्न
होता है, दूध से दही बनता है, छाछ बनाई, मक्खन निकाला, उसके बाद दही नहीं
हो सकता, इसी प्रकार समय खो दिया फिर भगवान से मिलना नहीं हो सकता।

गुलाब का फूल खिला, उस पर भँवरा लुभाया। कली-कली पर भँवरा गुंजार करता
रहा और ऐसा करते फूल मुरझा गया। इस प्रकार ऐसा करते हुए अरे मानव! उस
फूल के समान तेरी जिन्दगी खत्म हो गई। भगवान का भजन न किया, इससे
भगवान का सामीप्य नहीं हुआ। फिर चौरासी लाख योनियों में भटकना पड़ेगा।

अरे हंसा (जीव)! महिलाओं को सम्बोधन किया गया है- स्नान किया, सिर के
बालों की पाटियाँ प्रेम से पाड़ी। ललाट पर सुन्दर बिन्दी लगाई, इससे भगवान का
सामीप्य नहीं मिलता है। अरे! भगवान से लगन की चूनरी ओढ यानी भगवान
का भजन भी कर, जिससे मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो। आनन्दपूर्वक जीवन के साथ
भजन भी कर।

अरे जीव! नदी के किनारे घर बनाया और खूब निर्मल जन से स्नान किया, किन्तु
धर्म नहीं किया? धम्र करने वाले पार उतर गए अर्थात् इस संसार रूपी नदी से
पार उतर गये। तात्पर्य यह कि मुक्ति पा गये और पापी बीच में ही गोते खाते हैं।
कबीरदासजी की पुत्री कमाली कहती है कि धर्म करने वालों को अमरापुर की प्राप्ति
होती है।