भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पूर्णमासी रात भर / शकुन्त माथुर

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:57, 12 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शकुन्त माथुर |अनुवादक= |संग्रह=दू...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पूर्णमासी रात - भर
पीती रही सुधा
अँक में शशि के सिमटकर
धोती रही श्यामल बदन
सुध - बुध बिसार
दिन सरीखी श्वेत चादर ढाँक

उस सुनहली सेज पर
तारकों का जाल था जिस पर बना
पूर्णिमा की सुख भरी थी रात।

कब चितेरा कौन - सा रँग दे सकेगा
एक ही स्याही की गहरी छाप से
और जल के क्षीण छीटों से
मिटाकर
चित्र क्या बाक़ी रहेगा?

देस को अपने बिदेसी जाएगा
चन्द्र का प्रस्थान होगा दूर पर
हाँ, तकेगी राह
चन्दन के वनों में चान्दनी
फिर - फिर सिकुड़ती
आँख से आँसू गिराती
सलवट पड़े गुलाब पर।