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वो नज़र नहीं आती / दिनेश देवघरिया

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जैसे हो
कल ही की बात
उस खिड़की के पास
जब भी पढ़ने बैठता,
खिड़की खोलता,
सामने बगीचे में
आपस में खेलती,
चीं..चीं.. करतीं
गौरेयों पर नज़र पड़ती,
उनमें से एक
अक्सर उड़कर
मेरे पास आ जाती।
मानो मेरा
या मेरी खिड़की के
खुलने का इंतज़ार थी करती ।
फिर फुदक-फुदक
मेरे टेबल तक आ जाती
और फिर हर रोज़ की तरह
उस टेबल-घड़ी के उपर बैठ जाती।
उससे कुछ बतियाती,
चोंच लड़ाती।
मानो वक्तय को
रोकना चाह रही हो,
मुझे कुछ
कहना चाह रही हो।
आज भी
जब कभी
मैं उस टेबल पर
कुछ लिखने बैठता हूँ,
खिड़की खोलता हूँ,
तो उसके आने का
इंतज़ार करता हूँ।
पर अब वह नहीं आती
कभी नहीं आती
और न ही
सामने से
‘चीं..चीं..’ की
कोई आवाज़ आती है।
सामने बग़ीचा भी
अब नज़र नहीं आता।
मैं बार-बार
भूल जाता हूँ
हम इंसानों ने
उन सबका
आशियाना उजाड़ दिया है
और अपना-अपना
घर बसा लिया है।