भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
किसी क़लम से किसी की ज़बाँ से चलता हूँ / धीरेन्द्र सिंह काफ़िर
Kavita Kosh से
Jangveer Singh (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:37, 15 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=धीरेन्द्र सिंह काफ़िर |अनुवादक= |...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
किसी क़लम से किसी की ज़बाँ से चलता हूँ
मैं तीर किस का हूँ किस की कमाँ से चलता हूँ
मैं थक गया हूँ ठहर कर किसी समुंदर सा
बा-रंग-ए-अब्र तिरे आस्ताँ से चलता हूँ
तू छोड़ देगा अधूरा मुझे कहानी में
इसी लिए मैं तिरी दास्ताँ से चलता हूँ
जो मेरे सीने के बाएँ तरफ़ धड़कता है
उसी के नक़्श-ए-क़दम पर वहाँ से चलता हूँ
अगरचे चाहो तो लोगों को बीच ले आना
मैं आज अपने तिरे दरमियाँ से चलता हूँ