गंगा / 12 / संजय तिवारी
हे राम
मैं तो आज भी अनाम हूँ
तुम्हारे पूर्वजो की
चार पीढ़ियों की तप
का परिणाम हूँ
सगर से
भगीरथ तक की साक्षी हूँ
तुम्हारी कृपा की आकांक्षी हूँ
आज विश्वामित्र के समक्ष
खुद को पा रही हूँ
उमा के समकक्ष
तुम तो शिव के भी आराध्य हो
भक्त के लिए बाध्य हो
देखो
कैसे इन जटाओ में झूल रही हूँ
कुछ भी तो नहीं भूल रही हूँ
गोकर्ण से गंगासागर तक
भगीरथ के पीछे ही चली हूँ
तुम्हारे पूर्वजो से ही पली हूँ
राह में पड़ी तो
जह्नु की बही यज्ञशाला
देकर विध्न का हवाला
ऋषि क्यों पी गए
मुझसे तो जो मृत थे वे भी जी गए
ऋषिकर्ण को ही गोकर्ण बनाना
फिर मुझे बहाना
सोचो राम अब कैसे दू कोई नाम
बिन्दुसर से चली
सात धाराओं में ढली
ह्लादिनी, पावनी और
नलिनी पूर्व की ओर
सुचक्षु, सीता और सिन्धु
पश्चिम की ओर
एक भगीरथ के साथ
भागीरथी
याकि त्रिपथगा
याकि
जाह्नवी
याकि गंगा
अब क्या कहलाऊँ
कैसे रोऊं
क्या क्या गाऊँ।