भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कैसे वे रुक पाएँ? / निशान्त जैन
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:06, 17 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निशान्त जैन |अनुवादक= |संग्रह=शाद...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
समय-समय पर साहसियों ने
तोड़े हैं दस्तूर,
जाने कैसे भरे हुए थे
दिमागों में फितूर।
पुर्तगाल का सनकी नाविक
छोड़ सभी आराम,
करके पार समंदर पहले
पहुँचा हिंदुस्तान।
कोलंबस का भी था प्यारे
कैसा अजब सलीका,
चला ढूँढ़ने भारत था पर
जा पहुँचा अमरीका।
कैप्टन कुक की बात निराली
थकने का क्या काम,
अटक-भटक पहुँचे ऑस्ट्रेलिया
कंगारू के धाम।
खुराफात भी क्या थी मन में
हिम्मत का क्या दम,
नई-नई राहों पर बढ़ना
हो सुख या हो गम।
तूफान-बवंडर-भँवर-आँधियाँ
हों कितनी बाधाएँ,
सचमुच हों धुन के जो पक्के
कैसे वे रुक पाएँ।