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लो दिन बीता, लो रात गयी / हरिवंशराय बच्चन

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सूरज ढल कर पच्छिम पंहुचा,
डूबा, संध्या आई, छाई,
सौ संध्या सी वह संध्या थी,
क्यों उठते-उठते सोचा था
दिन में होगी कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई।


धीमे-धीमे तारे निकले,
धीरे-धीरे नभ में फ़ैले,
सौ रजनी सी वह रजनी थी,
क्यों संध्या को यह सोचा था,
निशि में होगी कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई।


चिडियाँ चहकी, कलियाँ महकी,
पूरब से फ़िर सूरज निकला,
जैसे होती थी, सुबह हुई,
क्यों सोते-सोते सोचा था,
होगी प्रात: कुछ बात नई।
लो दिन बीता, लो रात गई।