भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ऊब / मंजूषा मन
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:54, 17 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मंजूषा मन |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavit...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
कभी कभी होने लगती है ऊब
सांसों से,
और मैं पूछती हूँ दिल से
"तुम धड़कते धड़कते ऊब नहीं जाते"
दिल हँस हुए कहता है,
"क्या मुझे अधिकार है ऊब जाने का?"
हाँ!! पर मैं भी रो पड़ता हूँ अक्सर,
तुम्हें रोता देख।
मेरे अंदर बहता हुआ रक्त
जम जाता है,
जब चलकतीं है तुम्हारी आँखें।
तुम्हे क्या लगता है?
इस छल से भरी
दुनिया को देखकर
मुझे दर्द नहीं होता,
होता है बहुत होता है
पर मैं जानता हूँ
धड़के रहना ही मेरा प्रारब्ध है
मैं इससे बच नहीं सकता
ऐसे ही तुम्हें भी चलना ही होगा
हौसले को सहारा दे खड़ा करो
चल पड़ो
ऊबो मत
जूझो...
और आगे निकल जाओ।