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नृशंस लेखक / डेनियल बोर्ज़ुत्स्की / राजेश चन्द्र

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 ‘‘दानवों के ग्रह से यह मेरा अन्तिम संवाद है।‘‘
— राबर्टो बोलानो, सुदूर तारा

यह देख कर कि नृशंस लेखकों ने
मल-त्याग कर दिया है मेरी पांडुलिपि पर,
मैंने काफी राहत महसूस की
महसूस की एक गहरी अंतरंगता
इन लोगों के साथ जिनका
प्रेम साहित्य के प्रति इतना पर्याप्त था
कि वे उसका सर्वनाश कर सकें।
मुझे याद आयी वह कविता
जो कभी लिखी थी मैंने,
पर जिसे प्रकाशित करने का आत्मविश्वास
नहीं था मुझमें,
वह कविता एक कथित कवि के बारे में थी
जो बैठा करता था शौचालय में
केवल अपना पिछवाड़ा तर करने के लिये
ताकि बिजली की प्रचंड बौछार से
कटोरा भर जाये और वह उसमें उतराये।
मैं शुरू से जानता था कि कब्ज़
अत्याश्यक है कविता के लिये,
हालांकि जो बात मैं नहीं समझ पाया था अब तक,
वह यह कि कविता खुद भी घृणास्पद होती है।
उसके अपने शब्द ही मनहूस हुआ करते हैं पर्याप्त।
लेकिन जब रखा जाता है शब्दों को पास-पास,
जब उन्हें बांध दिया जाता है लय-छंदों में :
सृजन का कोई भी कर्म इतना घृणित नहीं होता।
संगोष्ठियों में अपनी बारी का इन्तज़ार करते
मैंने अक्सर देखा है अपने स्थानीय कवियों को
उनकी लयबद्ध कविताएं पढ़ते हुए।
वे विनम्रतापूर्वक, कृपाकांक्षी होकर
उन श्रोताओं के साथ संभाषण करते हैं
जो शराब की चुस्कियां लेते हुए
उन शब्दों पर ठिठियाते हैं
जो उनके मुखारविन्द से नहीं
बल्कि डाट निकले उनके पिछवाड़ों से
होकर निकलते प्रतीत होते हैं।
क्या ही पावन उपहास है यह साहित्य का!
अब भी मौज़ूद हैं ऐसे असभ्य लोग
जो सहन कर पाते हैं ऐसे तमाशों को,
किसी भी सभागार की दीवारें
नहीं सह सकतीं उनके ठहाकों का आघात।
नहीं, कविता वैसी नहीं, जैसी मेरी अपेक्षा थी।
केवल मलत्याग हो रहा है कविता में।
अपमान के इतने वर्षों बाद,
अन्ततः जान लिया है मैंने कि
अपनी कविताओं को मानवीय बनाना है
तो हमें मलत्याग करना ही पड़ेगा उन पर।
उन्मुक्त होकर मलत्याग करना होगा
अपने हाथों को उठाये हुए ऊपर की तरफ़
ताकि नीली पोशाक वाले जासूस
हमारे मल की जांच कर सकें
पता लगा सकें उसके टिकाऊपन के बारे में,
जो दूसरे जुझारू जासूस हैं नीली पोशाकों में
वे अपनी प्रयोगशालाओं के लिये ले सकें
हमारे काव्यात्मक रिसाव और ढूंढ सकें
उनमें परजीवी पिशाचों अथवा हीरों को
जो कि निर्भर करता है नज़रिये पर।
हम लीप देते हैं उन बूंदों को
हमारे स्वारोपित घावों से
रिसते हैं जो हमारी कविताओं पर
रक्त और स्याही को मिलाते हुए
गढ़ लेते हैं एक नवीन काव्य-शैली जिसमें
घिस-घिस कर चमकाते हैं अपने चेहरों को,
ताकि उनसे सुवास आये हमारे घिनौने बच्चों को,
ताकि उन पर लार टपका सकें हमारे घिनौने बच्चे,
और एक बार जब पूरा हो जाये
हमारा रिसना, टपकना और बकबकाना
तो हम कर देते हैं ऐलान
अपनी कविता के मुकम्मल होने का,
अब वह बेहतर है हमारा पिछवाड़ा पोंछने के लिये,
इससे पहले कि चली जाये वह छपने के लिये।
हम पोत देते हैं अपने टाइपराइटर को
मवाद और वीर्य से
और पटाते हैं किसी वज्रमूर्ख को
कि घोषित कर दे वह हमें एक कवि,
किसी दण्डनीय अपराध के लिये
पिंजरे की कारा का बंदी
घेराव में नृशंस लेखकों के
खंखार कर गला साफ़ करता हुआ
नज़रें चुराता हुआ प्रतिष्ठित साहित्यकारों से,
उसके हाथ बंधे हुए पीठ की तरफ़
ताकि वह साफ़ न कर पाये अपने चेहरे को।
क्योंकि कविता बड़ी मशक्कत का काम है!
बड़ा ही दुष्कर है ऐसा
कुत्सित, घृणित और बदबूदार सृजनकर्म।

अँग्रेज़ी से अनुवाद : राजेश चन्द्र

लीजिए, अब यही कविता मूल अँग्रेज़ी में पढ़िए
       
       BY DANIEL BORZUTZKY