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पद / 2 / गिरिराज कुवँरि
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कुछ दीखत नहिं महाराज, अँधेरी तिहारे महलन में।
ऐजी ऊँचो सो महल सुहावनो, जाको शोभा कहीं न जाय॥
तूने इन महलन में बैठ कै, सब बुध दी बिसराय॥
ऐजी नो दरवाजे महल के, और दशमी खिड़की बन्द।
ऐजी घोर अँधेरो ह्वै रह्यो, औ अस्त भये रबि-चन्द॥
ढूँढ़त डोलै महल मैं रे, कहूँ न पायो पार।
सतगुरु ने तारी दई रे, खुल गये कपट-किंवार॥
कोटि भानु परकाश है रे, जगमग जगमग होति।
बाहर भीतर एक सो रे, कृष्ण नाम की ज्योति॥