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वो न जाने राह में किस मरहले पर रह गया / मेहर गेरा

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वो न जाने राह में किस मरहले पर रह गया
मुझको यह एहसास, मेरे साथ ही चलता रहा

किस लिए उल्टें वरक़ माज़ी के अच्छे या बुरे
ज़िन्दगी में दोस्तो हर पल जुदा हर पल नया

मैं रवां हूँ एक दरिया की तरह ऐ ज़िन्दगी
मौत का एहसास था जिसको वो कब का रुक गया

रास्ते का ज़िक्र भी करता तो किससे ऐ मेहर
दर्द के जंगल में हर इक शख्स था भटका हुआ।