सियासी खेल खेला जा रहा है / अजय अज्ञात
सियासी खेल खेला जा रहा है
हमें खेमों में बाँटा जा रहा है
रिवायत को भुलाया जा रहा है
नशेमन को उजाड़ा जा रहा है
भला किस के सहारे छोड़ माँ को
बुढ़ापे का सहारा जा रहा है
रहा जो नींव के पत्थर की मानिंद
उसे घर से निकाला जा रहा है
उठाया कांधों पे आवारगी के
शराफत का जनाजा जा रहा है
चला कर फिर हवाएँ साजिशों की
चिरागों को बुझाया जा रहा है
पते की बात करता जो उसी को
यहाँ पागल बताया जा रहा है
चले हैं आँख वाले पीछे पीछे
दिखाता राह अंधा जा रहा है
वो देखो चौंधिया कर रौशनी से
अंधेरों में उजाला जा रहा है
करी पहचान जिस ने क़ातिलों की
उसे क़़ातिल बनाया जा रहा है
बहुत सस्ते में ही मजबूरियों को
खरीदा और बेचा जा रहा है
कहीं तीतर‚ कहीं मुर्ग़े‚ कहीं पर
बटेरों को लड़ाया जा रहा है
कहीं पर भूख से मरते हैं बच्चे
कहीं उत्सव मनाया जा रहा है
विषैली नफ़रतों की नागिनों को
हमारे बीच छोड़ा जा रहा है
बहुत अफसोस है अपने ही घर में
बुजुर्गों को सताया जा रहा है
कि कुछ तो बात है ‘अज्ञात' तुझ में
तुझे देखे ज़माना जा रहा है