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‘अस्ल मुहब्बत : भाग 1’ / जंगवीर स‍िंंह 'राकेश'

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मैं मानता हूँ कि तुम एक गहरा दरिया थी,
जिसमें मैं डूब न पाया, कभी!

मैं मानता हूँ कि मैं भी ऊँचा आसमां था,
जिसके शीर्ष को तुम छू न पायी, कभी !

मैं मानता हूँ तुम सर्दियों की थरथराती,
सर्द हवाओं से कम न थी।

मैं मानता हूँ कि मैं भी बादलों की
सफेदी -सा सिर्फ धुआँ ही था॥

फिर भी,
सर्दियों की गुनगुनी धूप की तरह,
कोहरे को हटाता आफ़ताब-सा मेरा दिल !

तुम्हें अपने आगोश में लेकर,
मेरी बाहें बेपनाह सकूं तो देती थी।

नादान, बड़ी नासमझ निकली तुम,
हां! यही 'अस्ल मुहब्बत' थी ॥॥॥