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ये गीत समर्पित हैं उनको / शिवदेव शर्मा 'पथिक'

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तुमने उलाहने बहुत दिये, इन्साफ हमारा दे न सके
मंज़िल पाने में देर हुई, तुम एक इशारा दे न सके!

मैं पथ पर आया उसको भी तुमने ही उस दिन भूल कहा
मेरे हर एक दिशापथ पर बिखरे हैं लाखों शूल कहा.
रोका मुझको तुम रुको पथिक! मंज़िल पालेना खेल नहीं
सम्बल भी मेरा लूट लिया, अब शेष दीप में तेल नहीं.

मैं लहर पकड़कर चीख उठा, तुम कभी किनारा दे न सके
मंज़िल पाने में देर हुई, तुम एक इशारा दे न सके!

जानेवाले का पथ रोका, मंज़िल का नाम विराम दिया
मैंने था पूछा पता किन्तु, तुमने पागल का नाम दिया.
मैं बढ़ने लगा मगर तुमने रुक जाने के संकेत किये-
मैंने माँगे गतिज्वार मगर तूने बालू के खेत दिये.

मंज़िल पाने के पहले हम आशीष तुम्हारा ले न सके
मंज़िल पाने में देर हुई, तुम एक इशारा दे न सके!

जब पाँव बढ़े उपहास किया, पथ पर देखा जल गये बहुत
मुझको अब पीछे मत खींचो, चलना ही था- चल गये बहुत!
कट गयी उमर चलते-चलते, बस एक डेग अब बाकी है
राहों में चाहों की शराब का एक पेग अब बाकी है.

तय हुई सफ़र मझधारों पर, तिनके का सहारा ले न सके
मंज़िल पाने में देर हुई, तुम एक इशारा दे न सके!

मैंने ख़ुद अपना पथ खोजा, अपनी मंज़िल के पास चला
आशीष-रूप में साथी सा बनकर तेरा उपहास चला.
सम्बल का दीन बना लेकिन, ये शूल राह के मीत बने
तुमने जो आँसू दिये मुझे, मेरी मंज़िल के गीत बने!

ये गीत समर्पित हैं उनको जो पथ का नारा दे न सके
मंज़िल पाने में देर हुई, तुम एक इशारा दे न सके!

ये गीत समर्पित! उनको जो इस युग-धारा पर बढ़ते हैं
ये गीत समर्पित! उनको जो पथ अपना अपने गढ़ते हैं.
उनको ये गीत समर्पित हैं जिनको मुझ से कुछ प्यार नहीं
यह मंज़िल उनके लिये कि जो मंज़िल के ठेकेदार नहीं.

पूनम को तुमने ढ़ंका, मगर रजनी को तारा दे न सके
मंज़िल पाने में देर हुई, तुम एक इशारा दे न सके!