भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

कमीज़ के नीचे / सुधांशु उपाध्याय

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:21, 23 अक्टूबर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुधांशु उपाध्याय |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कितना झूठ जिएँ हम हँसकर
कितना रोएँ छीजें
तार-तार बनियान है
उजली कमीज़ के नीचे

मन की राधा नाच न पाई
कभी किनारे नाव न आई
सन्नाटे में डूबी खाई
केवल सूखी बदली छाई
बच्चों को कैसे समझाएँ
सूखी बेल कहाँ तक सींचें

धुँधली पड़ती हुई नज़र है
चुप्पी पीता हुआ शहर है
बन्द खिड़कियोंवाला घर है
दीवारों पर चस्पाँ डर है
दूर क्षितिज पर बूढ़ा सूरज
काली रेखा खींचे

खड़े रहे हम पंजों पर ही
ख़ुद को कसे शिकंजों पर ही
कसते फिकरे-तंजों पर ही
बिछे रहे शतरंजों पर ही
जले हुए फूलों को लेकर
फूलों के बुन रहे गलीचे