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समर्पण / संजय तिवारी

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बर्फ सदियों पुरानी पिघलती रही
सभ्यताओं के आँचल में ढलती रही
सृष्टि की वेदना की चुभन थी बहुत
काल चलता रहा हाथ मलती रही

देह थी जो सनातन की जर्जर हुई
भावनाये सृजन की थीं बर्बर हुई
भारती की थी आहत बहुत वेदना
शब्द आते रहे रात पलती रही

जिसकी मीठी छुवन से मिटी थी तपन
जिससे संभव हुआ आज है यह सृजन
वह ईंधन बन कर जलती रही
हमारी गृहस्थी चलती रही