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महामिलन / नंदा पाण्डेय
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आज फिर नदी
अपने अस्तित्व को
विलीन करने की
सोच रही है
वह चल पड़ी फिर
समुद्र की ओर
समुद्र लंबे समय से
नदी की प्रतीक्षा में था
और तड़प रहा था
इस मिलन के लिए
बिना इस मिलन के
वह क्षीण हो रहा था
सोच में था समुद्र
की क्या,
उसका विशाल आस्तित्व
यूँ ही समाप्त हो जाएगा
विरह की ज्वाला में
उसने दोनों बाहों को
फैला कर दिया
आमंत्रण मिलन भाव से
नदी भी तो
इसी मिलन के लिए
निकली थी
पर्वत शिखर से
उसने अपना
अंतिम समर्पण
समुद्र की बाहों कर किया
दोनों कुछ देर
साथ रहे
फिर एक ही जल हो
बह चले
यही तो 'महामिलन' था उन दोनों का