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फिर याद आये दिन बचपन के / शीतल वाजपेयी

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फिर याद आये दिन बचपन के –
  जो पल- पल हमें परखती हैं।
                                                                                              
 मन फिर जी लेता उनको
मिट्टी की गुल्लक में हमने,
 जो थे लम्हें अपनेपन के।
सपनों के सिक्के डाले थे।
फिर याद आये दिन बचपन के।
गुल्लक की खनक बताती थी,
हम कितने पैसे वाले थे ।
अपनी ही धुन में रहते थे,
चलते थे कितना तन- तन के।
फिर याद आये दिन बचपन के।
 
पीछे छुपकर दरवाजे के,
जब हमने मिट्टी खाई थी।
फिर पापाजी ने देखा था,
तो हमको डाँट लगाई थी ।
तब मम्मी ने समझाया था
तुम दिखला दो अच्छा बन के।
फिर याद आये दिन बचपन के।
 
वो मेले के सर्कस- झूले,
वो रंग- बिरंगे गुब्बारे ।
ठेले की चाट-बताशे वो,
इमली-चूरन के चटखारे।
जेबों में खुशियों की चिल्लर
हम राजा थे अपने मन के।
फिर याद आये दिन बचपन के।
 
ये स्मृतियाँ वो संबल हैं,
जो हमको ज़िंदा रखती हैं।
साँसे हैं एक कसौटी सी