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चोट खा के भी मुस्कुराए हैं / विकास जोशी

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चोट खा के भी मुस्कुराए हैं
ज़िन्दगी हम तेरे सताए हैं

ढूंढता है वो मेरी आँखों में
मैंने आंसू कहां छुपाए हैं

इक तेरी याद रह गई है बस
जिसको सीने से हम लगाए हैं

कैसे हम छोड़ दें ये घर अपना
हमने बचपन यहां बिताए हैं

ज़िन्दगी का सुलूक ऐसा था
जैसे के हम कोई पराए हैं

ज़िक्र हरगिज़ नही किया हमने
ज़ख्म अपनों से कितने खाए हैं

चल रहे दूर दूर जो हमसे
ये हमारे उदास साए हैं

खौफ़ सैलाब का अगर था तो
क्यूं किनारों पे घर बसाए हैं

ओंठ जलना तो लाज़मी था फिर
अश्क़ क्यूँ जाम में मिलाए हैं