भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
होलई गईं जरि मरि / जगदीश पीयूष
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:49, 28 फ़रवरी 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगदीश पीयूष |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
होलई गईं जरि मरि।
लाई लूसी गै बिसरि॥
जड़ऊ भागें छोड़ छाड़ि के रजाई मोरे राम।
देखा देखा गर्मी माई कै अवाई मोरे राम॥
कतव रंग और अबीर।
बोलैं अरऽरा कबीर॥
छनै बाबा औ पतोहू कै मिठाई मोरे राम।
देखा देखा गर्मी माई कै अवाई मोरे राम॥
चढ़ै माई जी का तूल।
मलिया गावे लइके फूल॥
होय मौनी के अखाड़ा म ओझाई मोरे राम।
देखा देखा गर्मी माई कै अवाई मोरे राम॥
गवने जाय लागीं वे।
बोली पांव लागीं वे॥
लेबै लवटि के तोहसे मलाई मोरे राम।
देखा देखा गर्मी माई कै अवाई मोरे राम॥