भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम सांचु सांचु बतलाइति / सुशील सिद्धार्थ

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:20, 28 फ़रवरी 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुशील सिद्धार्थ |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम सांचु सांचु बतलाइति
तुमका चहै किहानी लागै।

एकु द्यास मा बघवा ब्वालै
मिसिरी जइसन बोली
जगा बेजगा लोग परे हैं
खाइ खाइ कै गोली
ऊ राजु चलावै जनता का
लेकिन मनमानी लागै॥

खेतु भिंजराइं बनैं बजारै
बापु होइ गवा पइसा
करिया धनु बहुतै पियार भा
बइठ बुद्धि पर भइंसा
उइकी नांदन मा जनता केरे
खून की सानी लागै॥

सांचु लगाये मुंह पर ताला
झूठु डहुंकि कै ब्वालै
भूखे नंगे ल्वागन केरे
सूखे हांड़ टटõालै
ऊ सावन मइहां आंधर ह्वैगा
सब कुछु धानी लागै॥