भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अकाल गीत / रामकृष्ण

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:44, 3 मार्च 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामकृष्ण |अनुवादक= |संग्रह=संझा-व...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जिनगी के ईरे-तीरे पसरल विपतिआ से लोरे-लोरे-
कानइ टुटली मड़इआ॥
चढ़ते असढ़वा फुनगलइ असरवा
काने-काने हो गेलइ अनोर।
कोठिआ कोठिलवा में जोगल परान-धान
धरती के बनलइ पटोर॥
सवना के बदरा निसुक भेलइ अखरा से कोरे-कोर -
मारइ जेठ के लहरिआ॥
मटिआ के नेहिआ में कनसल देहिआ
ताना-गाभी मारे कनसार।
अइसन सूरुज देवा बैरवा बेसाहलन
हहर उठल संसार।
टोहा अइसन बुतरू निअन खाढ़ मोरिआ के पोरे-पोरे -
जारइ काँच रे उमरिआ॥
अहरा, पोखर, पइन, नदिआ हकास गेल
कुइआँ के पनिआ पतला।
भादो के महिनमा में चरकाबिदोर घाम
अइसन न कि पलटे अकाल॥
खेतवा के टोपरा में टोटमा गे गोइआ जे लोगे-जोगे -
कएलक डइनी बदरिआ॥
पुरवा पूरुब गेल उतरा उतरलइ
हथिओ के चढ़ल सिंगार।
अबकी न अबकी के असरा बिसरलइ
चितरो के उपहल पिआर।
नून-भात पनिआ ला ठुनकइ बलकवा जे भोरे-भोरे -
उ का बुझतइ बिपतिआ॥