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असरा / रामकृष्ण

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भरल अँगना रेंगनी
दुआरी पर करजनी
गलिए-गुचिए सान्ही कोना में समाएल
आन्हर रोग के सिसकी
अँइठल पेट के कँहर-बत्था
उजाड़ छानी पर तिरमिरी पीले रउदा
सब तो हमर अपने हे गोई हमर अप्पन।
ढेर दिन पहिले
एगो तितकी-पच्छिम से पुरवारी कोर तक
अइसन टहाका इंजोर धएले
ससर गेल हल
कि लगऽ हल
उ इंजोर में
अनगिनती सूरुज/चान/मनी/मानिक
आउ सगरो के चकमकी
नेहा के/खँघरा के
फिन से अखरा निअन
हो जाएतन।
बाकी-
हवा के पीठ पर साटल
पोस्टर निअन देस,
बरफ देल पानी निअन मट्टी के तेल
सहर-बजार में उगे/बिके लगल।
आउ बइठे लगल
अगरा के
दूरा-दलान पर,
अनदेखल आन्ही
अनचीन्हल बतास।

अइसन में
भुला-भुला जाइत हे
हम्मर अप्पन सूरत
अनचीन्ह होएल जाइत हे
अपने हिरदा के अनरेखल टीस।

पीर के धूआँ उठऽ तो हे,
भीतर-बाहर के गुम-सुमी
सुगबुगैवो तो करऽ हे।
तइओ,
इ कउन पहर के हे अन्हरिआ
कि एतवर बड़गो
साफ असमान में
तरेंगन लदबदएलो पर/झाम हथ।

कपसऽ मत मीरा।
एही रेंगनी में बूनम मडुआदाना
जेकर खिलल फूल के महमही
साँस के सौंसे पोर में समा जाएत।
तहिआ-
एगो गुदगुदी
पोरे-पोर खिलखिलाए लगत।
एही असरे
जोगौले ही
अपन आँख के झाँपी में
कहिओ पसर के लहसे ओला सपना।