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पास न आओ / रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'
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प्राण निकलते है तारों के,
दीपों का दम टूट रहा!
नभ की सड़कों पर अंधियारा,
अधजकड़ी-सी पड़ी धरा।
इन विधवा दुखभरी दिशाओं
का जैसे पानी उतरा
पर्वत की साँवली शिलाएँ
तम में एकाकार हुई
गाढ़ी जमी उदासी का
बरसाती धुँधलापन बिखरा
खैर मनाओ उन सपनों की
जिनमें जीवन फूट रहा!
काल-यान पर चढ़कर जैसे
कोई महाप्रेत आया
पशु-पक्षी जलघर जीवों तक
पर है सकता-सा छाया
अभी न पूरा पवन भरा है,
अभी न पूरी भरी निशा
लगता है ज्यों शव प्रकाश का
कटा पड़ा हो अधखाया
पास न जाओ मौसम के जो
घुटी सांस-सा छूट रहा!
प्राण निकलते है तारों के,
दीपों का दम टूट रहा!