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फूल कोई न ओइसे फुला हे / सतीश मिश्रा

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आज गेंदा न जूही चमेली,
फूल कोई न ओइसे फुला हे।
अब बसंती महीना भी पतझर
कोई भौंरा कहाँ गुनगुना हे!

आँख के लोर से, चाननी भोर के
अब नेहा हे इहाँ देह मल-मल
पीर पत्थर जमल, जम के परवत बनल
झील बरसे इहाँ, लोर जल-थल

ई समुन्नर, लहर, तेज धारा
पिपनी से फँसल उजबुजा हे।
अब बसंती महीना भी पतझर
कोई भौंरा कहाँ गुनगुना हे!

लाल लहके अगन, जब चले ई पवन
गंध के गाँव में तलफला के
ई तरेगन न गोर, हे ई बांधल इंगोर
चांद के पाँव में झलमला के

नीम हे अब निमउरी के बैरी
डाँढ़ खुद्दे पताइ चिबा हे।
अब बसंती महीना भी पतझर
कोई भौंरा कहाँ गुनगुना हे!

दूर दीया बरे, पास झरना झर
सांझ के अंगना-नेह जागे
राह देखे खड़ा नेह आगे बढ़ा
हाथ के कंगना-सांस भागे

झांझ डोले, न बोलऽ हे बोली
साज सुर के गली गिलगिला हे
अब बसन्ती महीना भी पतझर
कोई भौंरा कहाँ गुनगुना हे!