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एक गली का अँधेरा / कुमार विकल

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(दिवंगत पिता के प्रति)

पिता ! मैं तुमसे बहुत दूर चला आया था

तुम्हारे घर मेम एक निम्न वर्ग के परिवार का पूरा अँधेरा था

जिसमें माँ—

एक ख़ामोश दिये की तरह जलती थी

और घर के अँधेरे को दूर करने का यत्न करती थी.

फिर भी हमारी किताबों के ज़्यादा हिस्से

अक्सर अँधेरे में रहते थे

और ज़िंदगी की तख़्ती पर लिखाई करते हुए

बहुत से अक्षर हमसे छूट जाते थे.


हर रात तुम्हारा घर

एक शराबी के क़दमों की तरह

लड़खड़ाता था

और रामायण पर झुका माँ का चेहरा

अचानक काँप जाता था.

उस समय सारे घर में

उस पावन किताब से केवल—

यही शब्द गूँजते थे

‘ढोल ,गँवार शूद्र ,पशु ,नारी…”

और बिस्तर में दुबके हुए बच्चों को महसूस होता था

कि घर की दीवारें गिर रही है

एक भूकंप आ रहा है.

उसी किसी भूकंप के दौरान मैंने

ज़िंदगी की सब से पहली गाली

और सबसे पहली प्रार्थना

एक साथ सीखी.

गाली तुम्हारे लिए

प्रार्थना माँ के लिए

गालियाँ और प्रार्थनाएँ

एक साथ बुदबुदाते हुए

मेरे लिए

दुनिया का सबसे आत्मीय चेहरा

धीरे—धीरे अजनबी बनता गया

और मेरे छोटे—छोटे प्रश्नों के साथ

एक बहुत बड़ा प्रश्न जुड़ता गया—

क्या आदमी के लिए घर ज़रूरी है?


मैंने सोचा मैं यायावर बन जाऊँगा

लेकिन ज़िंदगी—

जो अँधेरे से अँधेरे तक यात्रा है,

तुम्हारे घर के अँधेरे में नहीं बिताऊँगा.


पिता ! मैं तुमसे बहुत दू चला आया

और यायावरी करता हुआ

शहर -दर-शहर भटकता रहा

नियोन बत्तियों की रौशनी में

बचपन में छूटे अक्षरों कॊ

ठीक ढँग से पढने की कोशिश करता रहा,

लेकिन तुम्हारे घर का चिर-परिचित अँधेरा

मेरी आँखों के कोनों में कहीं अटका रहा.

नियोन बत्तियों की रौशनी में भी

मुझसे बहुत से अक्षर छूट जाते रहे,

और लिखते समय—

अक्सर उनके रूप टूट जाते रहे.

टूटे हुए अक्षरों में, पिता !

घर के अँधेरे के ख़िलाफ़

तुम्हें एक शिकायत भरा ख़त तो लिखा जा सकता था

किंतु कोई अग्नि-शब्द नहीं रचा जा सकता

जो मेरी आत्मा में एक लैंप—पोस्ट की तरह जले.

नहीं ,यह लैंप—पोस्ट

मेरी आंखों में नहीं,

मेरे घर की गली में जले.

जहाँ किसी एक सीलन भरे कमरे में

मेरी हमउम्र कम्मो

सिल्ली मशीन से लड़ते—लड़ते

वक़्त से पहले ही

अपनी आँखों की आधी रौशनी खो चुकी होगी

और मेरी माँ की तरह

एक दिये सी जल रही होगी

घर के अँधेरे को दूर करने का

यत्न कर रही होगी.


शहर—दर—शहर भटकने के बाद

गली के लिए इस प्रार्थना से

मैं इतना अभिभूत हो उठा

कि मैंने सोचा—

क्या आदमी लैंप—पोस्ट नहीं बन सकता?

और पिता! मैं तुम्हारे प्रति

सारी शिकायतों को भूलकर

गली के अँधेरे में लौट आया,

लेकिन जब—

मैं गली में प्रवेश-द्वार से दाख़िल हो रहा था

तो तुम—

गली के दूसरे छोर से बाहर जा रहे थे.