भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

घनश्याम कन्हैया के दरबार चली आयी / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ४ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:45, 12 मार्च 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCa...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घनश्याम कन्हैया के दरबार चली आयी।
बिरहा का ताप ऐसा बिन आग जली आयी॥

दिन-रात जलाते हैं रवि चंद्र निठुर बन कर
शीतल न हुई काया मझधार चली आयी॥

सहकार न बौराये कोकिल न कहीं कूके
मत बोल उठे पपिहा महुए पर कली आयी॥

संसार विटप भटकूँ तुम बिन न जिया जाये
मैं श्याम मिलन के हित कांटो में पली आयी॥

तुम एक अकेले हो नाथा था नाग जिसने
है विश्व विरद गाता सुन तेरी गली आयी॥

है श्याम सुना जब से तुम वेणु बजाते हो
मैं तेरे सुरों में अब अभिराम ढली आयी॥

हो प्यास जगा देते संतोष नहीं मिलता
हमको भी सता लेना दुनिया से छली आयी॥