भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सिन्दूरी सबेरा / जगदीश गुप्त
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:17, 30 मार्च 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगदीश गुप्त |अनुवादक= |संग्रह=नाव...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
पौ फटी,
चुपचाप काले स्याह भँवराले अन्धेरे की घनी चादर हटी ।
मख़रूर आँखों में गई भर जोत
जब फूटा सुनहला सोत
सिन्दूरी सबेरा बादलों की सैंकड़ों स्लेटी तहों को
चीरकर इस भाँति उग आया
कि जैसे स्नेह से भर जाय मन की हर सतह
हर वासना जैसे सुहागन बन उठे
पुर जाय हर सीमान्त कुंकुम की सुलगती उर्मियों से बेहतर ।
चुपचाप काले स्याह भँवराले अन्धेरे की घनी चादर हटी,
पौ फटी ।