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लो फिर सुनो / जगदीश गुप्त

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लो फिर सुनो, मुझको नहीं यह पथ-प्रदर्शन चाहिए
भटके हुए इनसान की पग-धूल मेरे शीश पर ।

हर पथिक का कन्धा पकड़
झकझोर कर
पूछे बिना ही कह रहे तुम ज़ोर से
इतिहास की देकर दुहाई
एक पथ है
यही पथ है
इसी से लक्ष्य तक जाना तुम्हें होगा ।
नहीं तो ग़ालियाँ खाना तुम्हें होगा ।
मगर सुन लो समझ लो
सब पथिक यकसाँ नहीं होते ।
सभी तो आदमी की शक़्ल में हैवाँ नहीं होते,
कि जिनको हर क़दम पर हाँकनेवाला ज़रूरत हो ।
नहीं, मुझको नहीं यह पथ-प्रदर्शन चाहिए
भटके हुए इनसान की पग-धूल मेरे शीश पर ।

अजानी मंज़िलों का राहगीरों को नहीं तुम भेद देते हो ।
जकड़कर कल्पन, उनके परों की मुक्ति को ही छीन लेते हो ।
नहीं मालूम तुमको
है कठिन कितना
बताए पंथ को तजकर
हृदय के बीच से उठते हुए स्वर के सहारे
मुक्त चल पड़ना
नए आलोक-पथ की खोज में
गिरि-गह्वरों से,
कंकड़ों से, पत्थरों से,
झाड़ियों से, झंझटों से, रात-दिन लड़ना ।

भटकने के लिए भी एक साहस चाहिए
जो भी नए पथ आज तक खोजे गए
भटके हुए इनसान की ही देन हैं
मैं इसलिए ही पूजता हूँ वे चरण
जो भटकते हैं दिन-रात
निज भाल पर रूमाल-सा बाँधे मरण
लो फिर सुनो मुझको नहीं यह पथ-प्रदर्शन चाहिए
भटके हुए इनसान की पग-धूल मेरे शीश पर ।

न यदि लोहू बहे, धरती न हो यदि लाल
तो क्या पथ नहीं होगा ?
नया आलोक लाने के लिए
क्या अग्रसर जनरथ नहीं होगा ?