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जुन्हाई / जगदीश गुप्त

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तरुनाई सी खिली जुन्हाई,
घुले पुलक से प्रान ।
किसने चूमा चान्द कि मुख से,
मिटते नहीं निशान ।

किरन-किरन से रूप बरसता,
नखत नखत से प्यार ।
डूबा जाता गगन ज्योति की,
लहरों में सुकुमार ।

पीपल का हर पात चमकता,
जैसे जल में सीप ।
देह देह से दूर प्रान के,
फिर भी प्रान समीप ।