भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वरदान / अंतर्यात्रा / परंतप मिश्र

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:55, 31 मार्च 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=परंतप मिश्र |अनुवादक= |संग्रह=अंत...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

स्वागत करता हूँ तुम्हारा
हृदय की गहराईयों से
ओ शांति के दूत!
पहले मैं तुम्हें न जान सका
नित्य नूतन और नवीन
अब मैं महसूस करता हूँ।

जैसे कि तुम मेरे सहयात्री हो
न जाने कितने जन्मों से
हमने साथ यात्राएँ की हैं
पता नहीं ऐसा क्यों लगता है
कई कारण हो सकते हैं।

वर्षों तक साथ रहते हुए भी
कोई अपरिचित रह जाता है
और कभी सात समुद्र पार रहकर
जिसको देखा और जाना भी न हो
अपना सा लगता है
क्या यह कोई अदृश्य शक्ति है।
 
इतने दूर रहकर भी
आत्मीयता का प्रतिपल अनुभव
तुम्हारी ओर खींचता है
हृदय की धड़कन में तुम्हारी उपस्थिति।
 
मेरे प्रभु मुझमें हैं
मेरे अव्यक्त विचारों को समझते हैं
मन की अभिलाषाओं को जानते हैं
मैं भी उनकी प्रेरणा और कृपा से
जीवन के प्रत्येक पल से
उनका धन्यवाद करता हूँ।

हम एकदूसरे में रहते हैं
शायद कभी मिल सकें
और शायद ऐसा कभी-भी न हो
मिलना और बिछड़ना केवल एक घटना है
पर, मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ मेरे साथी!
आत्मिक प्रेम सुधा के सागर!
बिना मिले और बिछड़े
तुम मेरे साथ हो सदैव
और मैं, तुममें रहता हूँ
यह मेरे लिए एक वरदान ही तो है