अद्वैत / अंतर्यात्रा / परंतप मिश्र
नित्य प्रति जब मैं जागता हूँ
अपनी साँसों में तुम्हारी उपस्थिति
को महसूस करता हूँ
मेरी अंतरात्मा में तुम्हारा वास है।
सूर्य की किरणों के साथ दिन का आरम्भ
स्वच्छ कर अपने तन और मन को
बारम्बार प्रणाम करता हूँ
हे कुशल निर्माता !
कैसी है यह उत्कृष्ट देह रचना?
दैनिक जीवन के व्यस्त दिनों में
मैंने सुना है "कर्म ही पूजा है"
तुम्हे अर्पित करता हूँ प्रतिक्षण।
शाम के आगमन के साथ
पक्षियों का समूह नीड़ों की ओर
और रात का दबे पावन प्रवेश
यही तो दिनचर्या है मेरी
पर इन सभी पलों में
मैं तुमसे कभी अलग न रहा।
हर क्षण तुम्हें साथ पाया है
सभी चीजों में और सभी जगहों पर
तुम ही तो हो मुझमें
मैं तुमसे भिन्न नहीं।
तो फिर मिलने और बिछड़ने का कैसा मोह !
प्रश्न ही नहीं रह जाता
यही अवस्था तो अद्वैत है
तुम मुझमें रहते हो और मैं
तुममें खो चुका हूँ