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पाती / अंतर्यात्रा / परंतप मिश्र

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लिखता हूँ कि तुम तक पहुँचा सकूँ
कुछ कहे और कुछ अनकहे विचार
कागज के इन पन्नों में सुरक्षित
शब्दों के नयनों से जो रहे निहार

भावनाओं के सागर में सीप बन
निर्मित करता रहता मोती हजार
सर्वस्व समर्पित अपना कर के
दे सकूँ विश्व को खुशियाँ अपार

बनती और बिगडती मानस पर
छायाचित्र निर्मित कच्ची दीवार
मानवता के लिए दृढ़ संकल्पित
प्रेम सृजित अपनेपन की मीनार

विश्व एक है, लक्ष्य एक है
मानव का गन्तव्य एक है
जीवन-धारा के प्रवाह में नाव एक है
चिरयात्रा के पड़ाव पर भाव एक है