आत्म बोध / अंतर्यात्रा / परंतप मिश्र
जीवन के सफर का मध्यान्ह
वर्तमान की राह पर खड़ा
मैं अपने भविष्य की कल्पना करूँ
उससे पहले अपने भूतकाल की
स्मृतियों के आँचल में
कुछ देर के लिए ही सही
बह जाना चाहता हूँ,
जिसे पीछे छोड़ आया था
वे सारी घटनाएँ
चलचित्र की भाँति आँखों के सामने
चलने लगी,मैं मौन होकर देखता हूँ
थोड़ा और गहरे में उतर जाना चाहता हूँ
क्या पता कुछ मिल जाए
स्मृतियों के हीरे, मोती और माणिक्य
पाता हूँ स्वयम् को बचपन के अनमोल पलों में
एक अबोध सुकुमार बालक
सुंदर बगिया की सुरभित बयार में
प्रकृति की सुन्दरता पर मोहित है
हजारों नन्ही कलियाँ
जो बस खिलने को हैं
अनन्त रंगों से सजी खूबसूरत तितलियाँ
चुम्बन लेती हैं
उन्मत्त भौरे गुंजन कर रह हैं
मधु का निर्माण करतीं मधुमक्खियाँ
प्रणय के गीत सुनती हैं
पुष्प के अधखिले पत्रों पर ओस की ठहरी बूँद
आनन्द के रस से सराबोर वातावरण
नदियों की जलधारा का अविरल प्रवाह
स्वादिष्ट फलों से लदे हुए वृक्ष
पक्षियों के उत्सव का आनंद
कोयल का सुमधुर संगीत
आज भी जीवंत हैं मेरे हृदय में
मेरे दादा जी का मेरे प्रति लगाव
दादी का प्रेम एवं आशीर्वाद
माँ की भोली ममता और दुलार
पिता की शिक्षा एवं अनुशासन
भाई-बहनों का रूठना और मनाना
धन्य हैं वो मेरे बीते हुए पल
मैं उन्हें शांतचित्त होकर ध्यान में उतरकर
उन्ही का हो जाता हूँ
पर भविष्य के पथ पर
अग्रसर होने के लिए पुनः लौटता हूँ
सभी का धन्यवाद करके
एक नयी ऊर्जा, प्रेरणा, स्फूर्ति के साथ
चल पड़ता हूँ
वर्तमान के कर्म पथ पर
भविष्य का निर्माण करने