भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्त्री – चार / राकेश रेणु

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:52, 28 अप्रैल 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राकेश रेणु |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKa...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वे जो चली जा रही हैं क़तारबद्ध,
गुनगुनाती, अण्डे उठाए चीटियाँ
स्त्रियाँ हैं ।

वे जो निरन्तर बैठी हैं
ऊष्मा सहेजती डिम्ब की
चिड़ियाँ, स्त्रियाँ हैं ।

जो बाँट रही हैं चुग्गा
भूख और थकान से बेपरवाह
स्त्रियाँ हैं ।

जीभ से जो हटा रही हैं तरल दुःख
और भर रही हैं जीवन
चाटकर नवजात का तन
स्त्रियाँ हैं ।

जो उठाए ले जा रही हैं
एक-एक को
पालना बनाए मुँह को
स्त्रियाँ हैं ।

स्त्रियाँ जहाँ कहीं हैं
प्रेम में निमग्न हैं
एक हाथ से थामे दलन का पहिया
दूसरे से सिरज रही दुनिया ।