भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सरे आम महफिल में आना तुम्हारा / मृदुला झा
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:30, 30 अप्रैल 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मृदुला झा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGhazal...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
दिखाकर झलक लौट जाना तुम्हारा।
लगे थे जहाँ में हसीनों के मेले,
रहा साथ मेरे फसाना तुम्हारा।
तुम्हारी अदाओं का कायल था मैं भी,
सितम ढा गया रूठ जाना तुम्हारा।
शराफत नहीं तो भला और क्या है,
रुठकर दो पल मान जाना तुम्हारा।
जिसे दोस्त समझा है तुमने हमेशा,
बना क्यों वो दुश्मन ज़माना तुम्हारा।