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आदमी ख़ुद को ही झुठलाता रहा / मृदुला झा
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स्वार्थ का जंजाल फैलाता रहा।
हादसों के बीच भी अपना शहर,
प्यार का पैगाम ही लाता रहा।
नीम की चटनी जिसे मीठी लगी,
वो सुरीली तान में गाता रहा।
लोग आदिम युग को उन्मुख तो नहीं,
सोच कर मैं रोज़ घबराता रहा।
रब ने सबको है बनाया एक-सा,
आदमी ही भेद फैलाता रहा।