भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पिता से गले मिलते / कुंवर नारायण
Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:16, 7 अगस्त 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुंवर नारायण |संग्रह=वाजश्रवा के बहाने / कुंवर नारायण ...)
पिता से गले मिलते
आश्वस्त होता नचिकेता कि
उनका संसार अभी जीवित है।
उसे अच्छे लगते वे घर
जिनमें एक आंगन हो
वे दीवारें अच्छी लगतीं
जिन पर गुदे हों
किसी बच्चे की तुतलाते हस्ताक्षर,
यह अनुभूति अच्छी लगती
कि मां केवल एक शब्द नहीं,
एक सम्पूर्ण भाषा है,
अच्छा लगता
बार-बार कहीं दूर से लौटना
अपनों के पास,
उसकी इच्छा होती
कि यात्राओं के लिए
असंख्य जगहें और अनन्त समय हो
और लौटने के लिए
हर समय हर जगह अपना एक घर