भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम नहीं हो / कविता कानन / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:30, 6 मई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=कवि...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

फिर वही
सुबह का समा
वही नज़ारा
वही बहती हुई
शीतल हवा
पत्तों को उड़ाती
खुशबू से भर देती
नासापुटों को
और वही बेंच
जिस पर बैठ कर
किया करते थे
हम घण्टों बातें
घर के सारे मसले
यहीं हल होते
भविष्य के सपने
अतीत की यादें
यहीं साझा किये जाते
सब कुछ है
वैसा ही
मधुर और दर्शनीय
किन्तु कितना अलग
मात्र इसलिये
कि यहाँ
अब
तुम नहीं हो।