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अंतड़ी के आग जरइ / जयराम दरवेशपुरी

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भोर के सपनमां में जागऽ हो किसनमां
कि फारले चलें रे अन्हरजाल

आज के अछूत दिन लुटकल सभे के नीन
केतना के खोल पीन करि देलक आँख तीन
मुँह फारि खाढ़ महाकाल

दिन अउ रतिया लगा के रहूँ गंतिया
गरम-गरम बतिया भुलाई देले मतिया
कि दुअरी पर बजऽ लगल झाल

अंतड़ी में आग जइ पेनी तर बिलाया चरइ
खोपड़ी में दाग भरइ भूखले इंसान मरइ
कि महरगी छूले हइ हाल की घर की बाहर
की नगर की डगर
छइले महा कहर
जीअऽ हइ कंहर-कंहर
कि हमर भविस हइ भुलाल

आश के परत में
अन्हरिया के रात में
सगर झात्-झात् में
दुश्मन के घात में
हिम्मत न हारे ऊहे लाल।